इस कानून को सबसे बड़ी चोट सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से लगी जो “गिरीश रामचंद्र देशपांडे बनाम केंद्रीय सूचना आयुक्त एवं अन्य (2012)” था
सूचना भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी मित्र राष्ट्रों से संबंध, लोक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता, न्यायालय की अवमानना, मानहानि, अपराध हेतु उकसाना या संसद की संप्रभुता और अखंडता से संबंधित हो। प्राइवेसी से संबंधित शब्द केवल “शालीनता” और “नैतिकता” हैं।
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संसद ने यह मानकर कि प्राइवेसी को परिभाषित करना कठिन है, प्रावधान में सरल कसौटी दी। यह कसौटी है यदि किसी सूचना का खुलासा शालीनता या नैतिकता का उल्लंघन करता है, तो उसे संसद को भी न दिया जाए। संयोग से पुट्टस्वामी निर्णय जिसमें प्राइवेसी को मौलिक अधिकार घोषित किया गया, ने यह नहीं बताया कि प्राइवेसी की पहचान कैसे की जाए। इसमें कहा गया था, “अंततः प्राइवेसी का मौलिक अधिकार जिसके कई विकसित होते पहलू हैं, केवल मामले-दर-मामले आधार पर विकसित किया जा सकता है।”
गिरीश देशपांडे निर्णय ने सूचना के इनकार को वैध ठहरा दिया यदि उसका संबंध किसी व्यक्ति से जोड़ा जा सके। अब पूरे देश में विधायक निधि व्यय, अधिकारियों की छुट्टियां, जाति प्रमाणपत्र, फाइल टिप्पणियां, शैक्षिक डिग्रियां, सब्सिडी पाने वालों की सूची और बहुत सी अन्य सूचनाएं नकार दी जा रही हैं।
कई लोक सूचना अधिकारी सिर्फ इसलिए सूचना नहीं देते क्योंकि उसमें किसी व्यक्ति का नाम है और इसे व्यक्तिगत सूचना कहकर नकार दिया जा रहा है। एक आरटीआई में मैंने पूछा था कि कितने आईएएस अधिकारियों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट चार साल से लंबित है। कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के लोक सूचना अधिकारी ने इसे यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि यह “व्यक्तिगत सूचना” है! गिरीश देशपांडे निर्णय को कई सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों के फैसलों में मिसाल के रूप में उद्धृत किया गया।
यह ध्यान देने योग्य है कि एडीआर-पीयूसीएल निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि नागरिकों को उन व्यक्तियों की संपत्ति जानने का अधिकार है जो लोक सेवक (जनप्रतिनिधि) बनना चाहते हैं, जबकि गिरीश देशपांडेय निर्णय ने कहा कि नागरिकों को उन लोक सेवकों की संपत्ति जानने का अधिकार नहीं है जो पहले से पद पर हैं! कई प्राधिकरण अब नागरिकों से मांग करते हैं कि वे सूचना के प्रकटीकरण में “जनहित” साबित करें। वे यह नहीं समझते कि यह तो मौलिक अधिकार है। हालांकि, अनेक अधिकारी और आयुक्त ऐसी सूचनाएं देते रहे अगर वह संसद द्वारा तय किए गए अपवादों में नहीं आतीं।
सरकार ने गिरीश देशपांडे निर्णय की खामी को समझते हुए डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन (डीपीडीपी) कानून का उपयोग करके आरटीआई अधिनियम की धारा 8(1)(जे) में संशोधन किया।
इससे धारा के 87 शब्दों की लंबाई घटाकर केवल छह शब्दों- “इन्फॉर्मेशन विच रिलेट्स टु पर्सनल इन्फॉर्मेशन” तक सीमित कर दी गई है। यह बड़ा परिवर्तन है क्योंकि अब अधिकांश सूचनाओं को आसानी से रोका जा सकता है। यह इस बात का अप्रत्यक्ष स्वीकार भी है कि मौजूदा कानून के अनुसार सभी व्यक्तिगत सूचनाएं अपवाद में नहीं आतीं। डीपीडीपी अधिनियम में एक और हैरानी वाली बात है।
सामान्यत: “व्यक्ति” से तात्पर्य इंसान से होता है, लेकिन इसकी परिभाषा विस्तृत है और इसमें “हिंदू अविभाजित परिवार, फर्म, कंपनी, व्यक्तियों का संगठन और राज्य” सब शामिल हैं। इस प्रकार, राज्य से संबंधित सूचना भी “व्यक्तिगत” कहकर नकार दी जा सकती है।
हमने इस यात्रा की शुरुआत दुनिया के सर्वश्रेष्ठ कानूनों में से एक से की थी। सक्रिय नागरिकों ने इस कानून का उपयोग व्यक्तिगत और सार्वजनिक भलाई के लिए किया और दूसरों को भी सिखाया। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि नागरिकों को सशक्त बनाने और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने का उद्देश्य पूरा होगा। भारत केवल सबसे बड़ा लोकतंत्र ही नहीं, बल्कि सबसे अच्छा लोकतंत्र बनेगा। अब नागरिकों और मीडिया को चाहिए कि इन खतरों पर चर्चा करें और जनमत तैयार करें ताकि सूचना का अधिकार और लोकतंत्र दोनों सुरक्षित रह सकें।
(लेखक पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त हैं)
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